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कविता

अधकपारी

रतीनाथ योगेश्वर


न जाने
कैसे घुस जाता
जूतों में पानी
रेतीले पाँव
हो जाते गीले
धूप गुनगुनी
चिकोटी काट
दूर
फुनगी पर नाचती...

हवा का एक तेज झोंका आता
पत्तों... धूल का तेज बवंडर लिए

दरवाजों की साँकल हिलाता
सूनी खामोश लंबी
बहुत दूर तक गली में खो जाता
सीढ़ियाँ उतरते पाँव
दरवाजे के पीछे खड़ी
बूढ़ी छड़ी
दीवार से सिर टिका
सो जाती...
और खाँसी की आवाज के साथ
फिर सुबह हो जाती...

दादी की अब एक ही निशानी
शालिग्राम की काली-सफेद धारियों वाली
पत्थर के अंडे जैसी वह मूर्ति
पीतल की नन्हीं डिबिया में बंद
अम्मा की सफेद बालों वाली पसंद

सारे बर्तनों के बिकने के बावजूद
बचा रह गया एक काँसे का गिलास
जो उल्टा करने पर
मंदिर के घंटे जैसा लगता...।

 


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